स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : भाग - 2

खाद्य पदार्थों पर विचार करके अब मैं पेय पदार्थों के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। प्राचीन यूनानियों का यह सिध्दान्त था कि पीने के लिए पानी से बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं। गरम देश के लोगों के लिए यह सिध्दान्त बड़े काम का है। ठण्डे देशों के लोग चाय, कॉफी, शराब आदि उत्तेसजक पदार्थों का सेवन करते हैं। स्वस्थ और हृष्टपुष्ट मनुष्य के लिए उत्ते जक पदार्थों की उतनी आवश्यकता नहीं होती। थोड़ी चाय या कॉफी का पीना अच्छा है, क्योंकि उससे शरीर में फुरती आती है और शरीर के क्षय का कुछ अवरोध होता है। पर चाय अधिक नहीं पीनी चाहिए अधिक पीने से भय रहता है। चाय से क्षुधाा की पूर्ति होती है, इससे यात्रा आदि में उसका व्यवहार अच्छा है। एक साहब चाय की प्रशंसा इस प्रकार करते हैं-'चाय पीनेवाला थोड़ा खाकर भी शरीर को बनाए रख सकता है।' पर यह स्मरण रखना चाहिए कि पानी जिस सुगमता से पिया जाता है, उस सुगमता से चाय आदि नहीं पी जा सकती। पानी सब प्रकृति के लोगों के स्वभावत: अनुकूल होता है, पर बहुत से लोग चाय आदि नहीं पी सकते। बहुत से छात्रा आजकल रात को जागने के लिए खूब चाय पी लेते हैं। यह साधन बुरा है। कसरत के समय भी चाय नहीं पीनी चाहिए। लगातार बहुत देर तक परिश्रम करते करते यदि शरीर शिथिल हो गया हो तो थोड़ी सी चाय पी लेने से शरीर स्वस्थ हो जाता है; पर प्यास लगने पर पानी ही पीना ठीक होता है। गरमी के दिनों में थोड़ा शरबत पी लेने से शरीर में ठण्ढक आ जाती है और घबराहट दूर हो जाती है। सारांश यह है कि खाने पीने में भी हमें उसी प्रकार विचार से काम लेना चाहिए, जिस प्रकार और सब कामों में। हमें अति कभी न करनी चाहिए और अनुभव से जो बात पाई जाय, उसी को स्वीकार करना चाहिए। केवल फलाहार करना, केवल पयाहार करना, जल ही को समस्त व्याधियों का नाशक बतलाना ये सब सनक की बातें हैं। ऐसी ऐसी बात उन्हीं को शोभा दे सकती है जो कहते हैं कि मोक्ष किसी एक ही प्रकार के साम्प्रदायिक विश्वास से हो सकता है। मनुष्य के लिए सबसे पक्का सिध्दान्त तो यह है कि वह संयम रखे। यदि कोई युवा पुरुष खान पान के असंयम द्वारा अपने सोने का शरीर मिट्टी कर दे तो यह उसका बड़ा भारी अपराधा है। खान पान के विषय में जितनी व्यर्थ की बकवाद होती है उतनी धर्म को छोड़कर और किसी विषय में नहीं होती। बात यह है कि जो लोग ऐसी बकवाद किया करते हैं, वे शरीर शास्त्र के नियमों को कुछ भी नहीं जानते। यदि युवा पुरुष थोड़ी सी जानकारी इस शास्त्र के विषय में प्राप्त कर लें, तो उन्हें फिर खान पान के विषय में बहुत सा उपदेश सुनने की आवश्यकता न रह जाय, और वे आप ही निश्चित कर लिया करें कि क्या खाना चाहिए, क्या पीना चाहिए, किससे बचना चाहिए। खानपान में समय का नियम बाँधो और सादा भोजन संयम के साथ करो। 


अब मैं भाँग, शराब आदि उत्तेरजक पदार्थों के विषय में दो चार बातें कहता हूँ। यह तो सर्वसम्मत है कि इनका अनियमित और अधिक मात्रा में सेवन दोषों का घर है। जिन्हें इनके अधिक सेवन की लत लग जाती है, उनका सारा जीवन सत्यानाश हो जाता है। पर यह कभी नहीं कहा जा सकता कि जो चित्त के उदास होने वा शरीर के शिथिल होने पर कभी थोड़ी ठण्डाई पी लेते हैं, वे सीधो काल के मुख में ही जा पड़ते हैं। हाँ, जो लोग अपने को वश में नहीं रख सकते, जिनके लिए संयम बहुत कठिन है, जिन्हें थोड़े से बहुत करते कुछ देर नहीं, ऐसे लोगों के लिए उचित यही है कि वे एकदम बचे रहें। उत्तेसजक पदार्थों से बचना युवा पुरुषों के लिए तो बहुत ही अच्छा है, पर एक चुल्लू भाँग को विष का घूँट कहना अत्युक्ति है। किसी दिन भर के थके माँदे मनुष्य को संध्याल के समय थोड़ी ठण्डाई पीते देख यह कहना कि 'बस अब यह चौपट हो गया' आडम्बर ही जान पड़ेगा। मैंने बहुत से बुङ्ढों को देखा है जो सबेरे थोड़ी सी अफीम ले लेने से दिन भर अपना काम बड़ी फुरती के साथ करते हैं। ऐसे बुङ्ढों को हम अफीमची नहीं कह सकते। ठण्डे देशों के लोग भोजन के साथ, पाचन आदि के लिए, थोड़ी मात्रा में मद्य का सेवन करते हैं। उनकी वह मात्रा जब बढ़ जाती है, तब वे शराबी कहलाने लगते हैं और घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं। 

उत्तेतजक पदार्थों के पक्ष में इतना कहने के उपरान्त मैं यह बतलाना आवश्यक समझता हूँ कि हृष्ट पुष्ट मनुष्य को, जिसे उपयुक्त भोजन और ताजी हवा मिलती है तथा विश्राम और व्यायाम करने को मिलता है, ऐसे पदार्थों की आवश्यकता नहीं। पाठक मेरे कथन में कुछ विरोधाभास देखकर चकित होंगे; पर बात यह है कि इस संसार में ऐसे लोग बहुत हैं जिनका शरीर हृष्ट पुष्ट नहीं, जिन्हें बहुत अधिक काम करना पड़ता है, जो चिन्ता से पीड़ित रहते हैं। ऐसे लोग उत्ते जक पदार्थों का थोड़ा बहुत सेवन करें तो हानि नहीं। चालीस वर्ष की अवस्था के उपरान्त बहुत लोगों को उत्तेहजक पदार्थों के सेवन की आवश्यकता होती है; क्योंकि उनसे भोजन पचता और शरीर में लगता है तथा शिथिल अंगों में काम करने की फुरती आती है। ऐसी अवस्था में भी उत्तेतजक द्रव्य की मात्रा थोड़ी हो और वह क्रमश: बढ़ने न पावे। 

अब रही हुक्के, सिगरेट आदि पीने की बात। इस सम्बन्ध में तो यह जानना चाहिए कि भले चंगे आदमी को तम्बाकू से किसी रूप में भी कोई लाभ नहीं पहुँच सकता। तम्बाकू का व्यसन चाहे खाने का हो, चाहे पीने का, चाहे सूँघने का, व्यर्थ और निष्प्रयोजन ही है। इससे युवा पुरुषों को अपने कार्य में कोई सहायता नहीं मिल सकती। सिगरेट पीनेवाले व्यर्थ कड़घआ धुऑं उड़ाकर परमेश्वर की स्वच्छ वायु को दूषित करते हैं और सुकुमार नासिकावालों को कष्ट पहुँचाते हैं। सुनते हैं कि चित्रकूट के पास के जंगल में दो ऍंगरेज सिगरेट पीते हुए सैर को निकले। रास्ते के किनारे दोनों ओर मधुमक्खियों के छत्तो थे। सिगरेट के धाुएँ से मक्खियाँ इतनी बिगड़ीं कि सब छत्तों को छोड़कर निकल आईं और उन्होंने डंकों से उन दोनों साहबों को मार डाला। अधिक तम्बाकू पीने से हानि होती है, इसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। पर इक्कीस वर्ष से ऊपर की अवस्थावाले प्राय: बहुत से लोगों को परिमित मात्रा में तम्बाकू पीने से कोई हानि नहीं पहुँचती। पर यदि हानि न भी पहुँचे तो भी लाभ कोई नहीं है। 

इस देश में पान खाने की प्रथा बहुत दिनों से है। भोजन के उपरान्त लोग पान खाते हैं, आए गए का सत्कार भी पान इलायची देकर करते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भोजन के पीछे वा कुछ खाने के पीछे दो बीड़े पान खा लेने से मुख शुध्द हो जाता है; मुख में किसी प्रकार की दुर्गन्ध नहीं रह जाती और भोजन के उपरान्त जो एक प्रकार का आलस्य वा भारीपन आता है, वह दूर हो जाता है। पान पाचन में भी सहायता देता है। पर अधिक मात्रा में पान खाना हानिकारक होता है। बहुत अधिक पान खाने से अग्नि मन्द हो जाती है, भूख पूरी नहीं लगती, एक प्रकार की घबराहट सी बनी रहती है जिससे किसी काम में चित्त नहीं लगता, जीभ स्तब्ध हो जाती है जिससे शब्दों का उच्चारण अस्पष्ट और रुक रुककर होने लगता है।
जिस प्रकार ऐसे लोग मिलते हैं जो दिन रात क्षण क्षण पान चबाया करते हैं, उसी प्रकार ऐसे लोग भी मिलते हैं जो पान के नाम से कोसों दूर भागते हैं और सौ तरह से नाक भौं सिकोड़ते हैं। पहले प्रकार के लोगों पर यदि दुर्वव्यससन सवार रहता है, तो दूसरे प्रकार के लोगों पर अपने को संयमी प्रकट करने की एक झूठी धुन। 
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 स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : भाग - 3 
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