हमारी हिंदी

(1)
 मन के धन वे भाव हमारे हैं खरे। 
जोड़ जोड़ कर जिन्हें पूर्वजों ने भरे ।।
उस भाषा में जो हैं इस स्थान की।
उस हिंदी में जो हैं हिन्दुस्तान की ।।
उसमें जो कुछ रहेगा वही हमारे काम का।
उससे ही होगा हमें गौरव अपने नाम का ।।
(2)
'हम' को करके व्यक्त, प्रथम संसार से।
हुई जोड़ने हेतु सूत्रा जो प्यार से ।।
जिसे थाम हम हिले मिले दो चार से।
हुए मुक्त हम रोने के कुछ भार से ।।
उसे छोड़कर और के बल उठ सकते हैं नहीं।
पडे रहेंगे, पता भी नहीं लगेगा फिर कहीं ।।
(3)
पहले पहल पुकारा था जिसने जहाँ।
जिन नामों से जननि प्रकृति को, वह वहाँ ।।
सदा बोलती उनसे ही, यह रीति हैं।
हमको भी सब भाँति उन्हीं से प्रीति हैं ।।
जिस स्वर में हमने सुना प्रथम प्रकृति की तान को।
वही सदा से प्रिय हमें और हमारे कान को ।।

(4)
भोले भाले देश भाइयों से जरा।
भिन्न लगें, यह भाव अभी जिनमें भरा ।।
जकड़ मोह से गए, अकड़ कर जो तने।
बानी बाना बदल बहुत बिगड़े, बने ।।
धरते नाना रूप जो, बोली अद्भुत बोलते।
कभी न कपट-कपाट को कठिन कंठ के खोलते ।।
(5)
अपनों से हो और जिधर वे जा बहे।
सिर ऊँचे निज नहीं, पैर पर पा रहे ।।
इतने पर भी बने चले जाते बड़े।
उनसे जो हैं आस पास उनके पडे ।।
अपने को भी जो भला अपना सकते हैं नहीं।
उनसे आशा कौन सी की जा सकती हैं कहीं? ।।
(6)
अपना जब हम भूल भूलते आपको,
हमें भूलता जगत हटाता पाप को ।।
अपनी भाषा से बढ़कर अपना कहाँ?
जीना जिसके बिना न जीना हैं यहाँ ।।
हम भी कोई थे कभी, अब भी कोई हैं कहीं।
यह निज वाणी-बल बिना विदित बात होगी नहीं ।। - आचार्य रामचंद्र शुक्ल

(ना. प्र. पत्रिका, सितं.-दिसं., 1917) Source : KAVITAKOSH
Poem in hindi by ramchandra shukla.
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